पीछे मुड़कर देखो तो ज़ाहिर है कि सबसे गहरा नाता तो ‘शब्द’ के साथ ही जोड़ा है. और कोई साथ रहे न रहे, शब्द तो रहता ही है. चाहने वाले नाराज़ हो सकते हैं, दोस्त वक्त पर गायब हो सकते हैं, मगर शब्द तो आपका साथ निभाते ही हैं. कभी दिल की बात सुनने वाला न मिले, तो आप कहानी या कविता या अपनी डायरी में लिखकर अपना दिल हल्का कर ही सकते हैं. इसलिए शब्द एक सखा है, मुझे तो यह अपना अनन्य सखा लगता है. आज शब्दों की यह कविता ‘शब्द’ को ही समर्पित है.
शब्द आज बहुत अनन्य हो गया है
एक सखा, करुणामय, अपेक्षाहीन
वह कुछ नहीं मुझसे चाहता
न ताने कसता, न उलाहने देता
अपने आप में पू्र्ण, संतुष्ट
वह है, और मुझे रहने देता है।
मैं उसकी उपेक्षा करूँ या ज़बरदस्ती
वह दोनों का आदी है
मैं उसे अपने उमंग से सराबोर करूँ
या अनंत आंसुओं से भिगाऊँ
वह दोनों का साथी है
मैं उसे अपने प्रेम से सजाऊँ
या विरही यादों से रुलाऊँ
वह दोनों का खैराती है।
वह है, और मुझे रहने देता है
अभिव्यक्ति करने देता है
स्वयं को संभालने देता है
मेरे मनोभावों का साथी, एक सेतु
अंतर जगत और बहिर जगत के बीच
वह मेरे अंतर्मन का साक्षी है।
वह है तो मैं हूँ, तुम हो
हमारी बनती बिगडती बातें
हमारे टूटते सजते सपने
सब इसी शब्द के मोहताज हैं।
प्रतिभा जैन