This parable sheds light on the Impermanence of Life, or Anitya Bhavana, as explained by the Jaina seers. The ardent seeker must contemplate upon this truth to grasp life in its myriad changes. An extract from “Jeevan ka Utkarsh” by Shri Chitrabhanu, translated into Hindi by Pratibha Jain.
दो घंटों में अँधेरा छा जाता है। गुरु प्रश्न करते हैं, ‘वत्स, क्या नज़र आ रहा है?’ शिष्य कहता है, ‘मुझे कुछ नजर नहीं आ रहा। सब कुछ चला गया।’ अब गुरु पूछते हैं, ‘कहाँ चले गाए – वे आकार, रंग, बादल, वह सौंदर्य – कहाँ लुप्त हो गए?’ शिष्य चुप्पी में खो जाता है, विचारमग्न हो जाता है। उत्तर का आभास भी है। वह इंद्रधनुष, वह सौंदर्य लुप्त है। मगर फिर भी, गया नहीं है।
यही ध्यान का बिंदु है – सभी कुछ इस जगत में ही विद्यमान है। गुरु शिष्य से कहते हैं, ‘कुछ भी लुप्त नहीं हुआ है, सब कुछ यहीं है। मगर पृथ्वी की परिक्रमा के कारण तुम बदलाव को देखते हो। तुम्हारी भौतिक दुष्टि को ऐसा प्रतीत होता है मानो कुछ चला गया है।’ ‘अब अपनी अंतर्दृष्टि का प्रयोग करो। देखो, संपूर्ण ब्रहांड एक अटूट लय में घुम रहा है। वही सूर्य जिसे हम यहाँ से लुप्त मानते हैं, पृथ्वी के उस पार उदय हो रहा है। सूर्य तो वही है। स्वयं को पृथ्वी के धरातल से उठकर सूर्य की ऊँचाई तक ले चलो। अब तुम्हें सूर्य सदैव दृष्टिगोचर होगा। अपने भीतर के सूर्य से अभिज्ञ रहो, तुम्हारे अंदर अपरिवर्तनशील जीवन है।’
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For some reason I am reminded of a poem I read in Class X after reading this article. It is by Sumitranandan Pant titled मौन निमन्त्रण।
स्तन्ध ज्योत्स्ना में जब सन्सार
चकित रहत शिशु-सा नादान
विश्व के पल्कों पर सुकुमार
विचर्ते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने, नक्षत्रों से कौन
निमन्त्रण देता मुझ्को मौन।
It is as if the nature is calling you to reflect, meditate and assimilate the permanence of impermanence…
How beautiful to be reminded of this masterpiece of a poem – thanks Aruna.